तेनालीराम की कहानी: तेनाली रामा और खूंखार घोड़ा
बहुत समय पहले की बात है। एक समय दक्षिण भारत में विजयनगर नामक साम्राज्य था और इस साम्राज्य की बागडोर राजा कृष्णदेव राय के हाथों में थी। एक दिन एक अरब व्यापारी उसके राज्य में घोड़े बेचने आया। उन्होंने राजा के सामने अपने घोड़ों की इतनी प्रशंसा की कि महाराज कृष्णदेव उनके सभी घोड़े खरीदने के लिए तैयार हो गये। राजा ने सभी घोड़े स्वीकार कर लिए और सभी को खरीद लिया, लेकिन अब उसके सामने एक बड़ी समस्या थी। समस्या यह थी कि सभी घोड़ों को कहाँ रखा जाए। वास्तव में, वहाँ इतने सारे घोड़े थे कि राजा का अस्तबल उन सभी को समायोजित करने के लिए बहुत छोटा था।
इस समस्या को सुलझाने के लिए राजा ने एक उपाय निकाला और सारी जनता और सभी दरबारियों को इकट्ठा होने का आदेश दिया। राजा का आदेश मिलते ही सारी प्रजा, साथ ही मंत्री और राजदरबारी अपना-अपना काम-काज छोड़कर राजमहल के सामने एकत्र हो गये। इसके बाद राजा कृष्णदेव वहां आए और बोले, “मैंने आप सभी को एक महत्वपूर्ण कार्य सौंपने के लिए यहां बुलाया है।”
इतना कहकर राजा ने अपनी राय सबको बता दी। हमने ढेर सारे अरबी घोड़े खरीदे। सभी घोड़े अद्भुत और मूल्यवान हैं, लेकिन दुर्भाग्य से हम उन सभी को अपने अस्तबल में नहीं रख सकते। नए अस्तबल को तैयार करने में लगभग तीन महीने लगते हैं। इसलिए मैं चाहता हूं कि प्रजा और सभी मंत्री और दरबारी तीन महीने तक इन घोड़ों की देखभाल करें। इस कार्य के लिए शाही खजाने से हर महीने एक सोने का सिक्का दिया जाएगा।
प्रति माह एक स्वर्ण मुद्रा के बदले घोड़ों की देखभाल करना तथा भोजन-पानी उपलब्ध कराना बहुत कठिन था, परंतु इस विषय में कोई कुछ नहीं कह सकता था, क्योंकि यह राजा का आदेश था। फिर सभी लोग अपने-अपने घोड़े लेकर घर की ओर चल दिये। उसी समय तेनालीराम को भी एक घोड़ा मिल गया।
तेनालीराम बहुत चतुर और बुद्धिमान व्यक्ति थे। उन्होंने अपना घोड़ा लिया और अपने घर के पीछे घास-फूस से एक छोटा सा अस्तबल बनाया और घोड़े को उसमें बाँध दिया। राजा के क्रोध से बचने के लिए राज्य के सभी लोग अपना पेट काटकर घोड़ों की सेवा करने लगे।
वही, तेनालीराम अस्तबल में एक छोटी सी खिड़की से घोड़े को प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा खाना खिलाते थे। तीन महीने बीत गये।
समय पूरा होने पर सभी को वापस महल में बुलाया गया। राजा का आदेश सुनकर सभी लोग अपने-अपने घोड़ा लेकर राजमहल पहुंच गए, लेकिन तेनालीराम खाली हाथ वहां पहुंच गए। राजा तेनालीराम को बिना घोड़े के देखकर आश्चर्यचकित हुए और उससे पूछा कि वह घोड़ा क्यों नहीं लाया।
राजा तेनाली के पूछने पर तेनाली राम ने उत्तर दिया, “महाराज, घोड़ा बहुत बिगड़ैल और खतरनाक हो गया है। इसीलिए मुझमें उसे अपने साथ ले जाना तो दूर, उसके पास जाने की भी हिम्मत नहीं थी।” तेनालीराम की बात सुनते ही राजगुरु बोले , “महाराजा तेनालीराम झूठ बोल रहे हैं।” हमें खुद जाकर इस बात का पता लगाना होगा.
राजगुरु की बातें सुनकर राजा कृष्णदेव राजगुरु को स्वयं तेनालीराम के घर जाकर सच्चाई का पता लगाने को कहते हैं। राजा के आदेश पर राजगुरु तेनाली और कुछ दरबारी तेनाली के घर जाते हैं।
जैसे ही तेनाली राम के घर पहुंचे, राजगुरु ने वहां बने अस्तबल को देखा और कहा, “अरे मूर्ख तेनाली, तुमने इस छोटी सी कुटिया में घोड़े को रखा है और इसे अस्तबल कहते हो।”
राजगुरु की बात सुनकर तेनालीराम ने कहा, “राजगुरु, आप बहुत पढ़े-लिखे हैं, इसलिए आपको और जानने की जरूरत नहीं है। मैंने यह झोपड़ी घोड़े को रखने के लिए बनाई थी, इसलिए मैंने इसे अस्तबल कहा, लेकिन घोड़ा वास्तव में बहुत जंगली हो गया। इसलिए, पहले आप उसे खिड़की से झांक कर देख लें। उसके बाद ही इस कुटिया के अंदर जाएं।”
जैसे ही राजगुरु तेनालीराम के पीछे गए और घोड़े को देखने के लिए अपना चेहरा अस्तबल की खिड़की के करीब लाए, भूखा घोड़ा उन पर झपट पड़ा और उनकी दाढ़ी अपने मुंह में ले ली। राजगुरु अपनी पूरी ताकत से अपनी दाढ़ी छुड़ाने की कोशिश करते हैं लेकिन वह असफल रहते है। ऐसी ही तमाम कोशिशों के बावजूद घोड़े ने राजगुरु की दाढ़ी नहीं छोड़ी तो एक दरबारी ने तलवार से राजगुरु की दाढ़ी काट दी और घोड़े से राजगुरु की जान बच गई।
किसी तरह घोड़े से अपनी जान बचाकर राजगुरु अपने साथ आए दरबारियों को घोड़े को महल में ले जाने का आदेश देते हैं। तेनाली राम के घोड़े को पकड़ लिया गया और राज दरबार में पेश किया गया। चूँकि घोड़े को तीन महीने से पर्याप्त भोजन और पानी नहीं मिला था, इसलिए वह बहुत पतला दिखता था। घोड़े की हालत देखकर राजा तेनाली से इसका कारण पूछते हैं।
राजा के सवाल पर तेनाली जवाब देता है, “मैंने घोड़े को हर रोज थोड़ा ही चारा दिया, जिस प्रकार आपकी प्रजा कम भोजन में गुजारा करती है। इस कारण घोड़ा कमजोर और बिगड़ैल हो गया।”
तेनाली राम ने कहा: “राजा का कर्तव्य अपनी प्रजा की रक्षा करना और उनका भरण-पोषण करना है, न कि उन पर अधिक बोझ डालना। “लोग कमज़ोर हो गए क्योंकि उनके पास अपना भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं था।”
अब महाराज कृष्णदेव को तेनालीराम की बात समझ आ गई और उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने इस गलती के लिए अपनी प्रजा से माफी मांगी और तेनाली राम को उसकी बुद्धिमत्ता के लिए सम्मान दिया।
कहानी से सिख:
तेनालीराम और खूंखार घोड़े की कहानी की सीख यह है कि कोई भी निर्णय लेने से पहले अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए ताकि किसी और को इसका दुष्प्रभाव न भुगतना पड़े।